वैराग्य की शिक्षाभगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु काशी के मायावादियों का उद्धार करने के उपरान्त वापस नीलाचल लौट गये। प्रभु ने चौबीस वर्ष की आयुमें संन्यास लिया और अड़तालीस वर्ष की आयुमें अपनी प्रकटलीला को सम्वरण कर लिया। संन्यास वेश ग्रहण करने के पश्चात् प्रभु ने पहले छः वर्ष भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों में भ्रमण कर लोगों का उद्धार किया।बाकी अठारह वर्ष उन्होंने नीलाचलमें ही रहकर अनेकों लीलाएँ कीं। उनका आचरण अत्यन्त कठोर था। वे बहुत ही त्याग एवं वैराग्यपूर्वक रहते थे। किसी भी मौसममें वे दिनमें तीन बार स्नान करते थे। वे भूमि पर शयन करते थे। जीवों को शिक्षा प्रदान