एक योगी की आत्मकथा - 14

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{ समाधि-लाभ }“मैं आ गया हूँ, गुरुजी!” मेरा लज्जित चेहरा मेरे मनोभावों को अधिक स्पष्टता से व्यक्त कर रहा था।“चलो रसोईघर में चलकर खाने के लिये कुछ देखते हैं।” श्रीयुक्तेश्वरजी का बर्ताव इतना सहज था मानों हम कुछ दिनों के लिये नहीं बल्कि कुछ घंटों के लिये ही अलग रहे हों।“गुरुदेव! मेरे द्वारा आश्रम के कर्त्तव्यों को अचानक छोड़ कर चले जाने से आपको अवश्य निराशा हुई होगी। मुझे तो लगा था आप मुझ पर क्रोधित होंगे!”“नहीं, बिलकुल नहीं! क्रोध केवल इच्छा के अवरोध से उत्पन्न होता है। मैं कभी दूसरों से कोई अपेक्षा नहीं रखता, इसलिये उनका कोई भी