{ विनिद्र संत }“कृपया मुझे हिमालय में जाने की अनुमति दीजिये। मुझे लगता है कि वहाँ के अखण्ड एकान्त में मैं ईश्वर से अनवरत तादात्म्य स्थापित कर सकूँगा।”एक बार सचमुच मैंने अपने गुरु से ये कृतघ्र शब्द कहे। कभी-कभी साधक के मन में अप्रत्याशित रूप से उत्पन्न होने वाले भ्रम के जाल में मैं फँस गया था। कॉलेज की पढ़ाई और आश्रम के कर्तव्यों के प्रति दिनप्रतिदिन बढ़ती उदासीनता मुझे अधिकाधिक अधीर किये जा रही थी। इस कृतघ्नता के पातक को किंचित् हल्का करने वाली बात यह थी कि मैंने यह प्रस्ताव तब रखा था जब श्रीयुक्तेश्वरजी के साथ रहते