(2) संत-असंत वंदना* बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥ भावार्थ:-अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात् संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना।)॥2॥ * उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक