और मैं वही का ककनूस हूं

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बुझते हुए उजालों में दूर तक केवल धूल का ही राज लगता है दूर जहां आसमान धरती से आलिंगन करता जान पड़ रहा है और लाज की मारी धरती बस सुरमई हो गई सी लगती है पर यह गुबार उसे किस कदर मटमैला किए है। इन्हीं गर्दो गुबार से निकलता कब रात का आलम पसर सा गया और नन्हे नन्हे टिमटिमाते तारे मानो कह रहे हों - यूं अंधेरों से ना डर कोई एक जुगनू तो अपने दिल में जला तो फिर देख रोशनियों के कितने सैलाब आते हैं। पर यह कहां मुमकिन था यादों के लिहाफ में लिपटा मैं कितनी ही रातों से