एक अमीर, एक गरीब

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फटे चीथड़ों से ढका शरीर, थका-सा निर्जीव-सा घर-घर डोला करता । कोई कुछ देता तो भी आशीर्वाद न देता। सबेरे उठता, दिन भर भांगता और जब दिन भर की चहल-पहल के बाद थक कर लोग अपने घरों में मां, पत्नी एवं बच्चों के साथ दुःख भूलकर, थकावट खो कर निद्रा की गोद में बेहोश से पड़े आनन्द ले रहे होते तो वह फुटपाथ की जलती ईंटों पर लेटकर मानो जीवन के सारे अभाव जलाकर राख कर देना चाहता हो। वह लेटता तो रात को सड़क पर आने-जाने वाले लोग देखते रहते- "कैसा भाग्यशाली है। कोई चिंता नहीं, कोई परेशानी नहीं,