नफरत का चाबुक प्रेम की पोशाक - 14

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फिर भी मैं जीती रही,बिरह की आग में तड़पती रही अपने बच्चों को छाती से चिपकाए। जब उसे अपने बच्चे याद नहीं तो मैं क्यों सोचूँ उसके बारे में । मैंने उस खत के बारे में सोचना बंद कर दिया और लग गई अपने बच्चों और अपनी बहनों की ठीक से परवरिश के लिए कमाने के लिए। एक दिन मैं किसी सवारी को छोड़ने रेलवे स्टेशन गई थी। वहाँ मेरी जेठानी और बानो कहीं जा रही थी। उन्होंने मुझे नहीं देखा क्योंकि मैं सवारी को उतारकर जूती गठाने के लिए रुक गई थी। वहीं वो दोनों आपस में किसी बात