----------------------- आज जब कल की बात सोचती हूँ तो लगता है एक सपना जीती रही हूँ ताउम्र ! जीवन के शिशुपन से आज जीवन की अंतिम कगार पर खड़े हुए एक लंबी, असहाय सी श्वाँस निकलकर मेरे चारों ओर पसर जाती है | न, उनमें कोई ऎसी तड़प नहीं है कि आँसुओं से लबरेज़ हो जाएँ आँखें या फिर वो श्वाँस निस्तब्ध सी मेरे व्यक्तित्व को असहाय बनाने के लिए सामने खड़ी मिले | उसमें है जीवन का वो द्वन्द जो न जाने कितनी सँकरी गलियाँ खोलकर एक दृश्य अंकित करता है फिर वे दृश्य बदलते रहते हैं, उनके परिवेश