हडसन तट का ऐरा गैरा - 34

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रात गहराने लगी थी। शाम का झुटपुटा देखते- देखते घने पेड़ों के पीछे ओझल हो चुका था। आसमान में जुगनू से टिमटिमाते तारे धीरे- धीरे बढ़ते जा रहे थे। नीरव सन्नाटा सा पसरने लगा था क्योंकि सारा जगत दिन भर की चहल- पहल के बाद नींद के आगोश में चला गया था। अचानक एक ऊंचे से पेड़ के घनेरे पत्तों में कुछ हलचल सी हुई। उसकी हर डाली महीन आवाज़ में सरसराने सी लगी। एक- एक करके कई पंछी और छोटे- मोटे जीव उड़ते, सरकते, रेंगते, उछलते, कूदते हुए चले आ रहे थे और इधर - उधर जगह देख कर