कोयला भई ना राख--(अन्तिम भाग)

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स्त्री का घर नहीं होता, वो तो शरणार्थी है. ये सब बचपन से सुनते आ रही थी कि बेटी पराया धन है, बेटे वंशधर होते है,स्त्री के पास अपना कुछ नहीं होता-ना घर ना सरनेम ना परिवार ना इज़्ज़त ना जाति ना धर्म, सब कुछ पुरुष का दिया हुआ, बहुत घबराहट-सी थी मन में पर मैं तो एक मिशन पर निकली थी इससे मन के सारे दूराग्रहों को निकाल फेंक लम्बी सांस ले तन कर बैठ गई, एयरकंडिशन क्लास में बैठने का ये पहला मौक़ा था, रास्ते भर बचपन हिलोरे लेता रहा, कब मुंबई सेंट्रल स्टेशन आ गया पता ही