रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 12

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छी- छी... हे भगवान! ये मैंने क्या किया? हे मेरे परमात्मा, तू ही कोई पर्दा डाल देता मेरी आंखों पर। ऐसा मंजर तो न देखती मैं! पर तुझे क्या कहूं, ग़लती तो मेरी ही थी सारी। मैं क्या करूं, मैं खुद भी अपने बस में कहां थी? मैं भी तो बावली हुई घूम रही थी। उतावली कहीं की। बस, अब पड़ गया चैन? अपनी ही आंखों से देख लिया न सब कुछ! बेटा, मुझे माफ़ कर दे। लेकिन बाबू, सारी ग़लती मेरी भी तो नहीं है। तू कौन सा बाज आ गया था अपनी करनी के जुनून से। मैं डाल