रस्बी की चिट्ठी किंजान के नाम - 7

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तू धीरे धीरे बड़ा होने लगा और तुझे देख देख कर ज़िन्दगी पर मेरा भरोसा बढ़ने लगा। मैं ख़ुश रहने लगी। ये कितनी अजीब बात है न? इमारतें, सड़कें, पुल, झीलें, झरने, बग़ीचे, बाज़ार, मोटर, रेल, दुकानें, खेत... ये सब हमें और भी अच्छे लगने लगते हैं जब हमारे साथ कोई प्यारा सा अपना हो। हर काम में जी जुड़ता है। खाने- चहकने- खिलखिलाने की इच्छा होती है। देखते देखते तू स्वस्थ सुंदर किशोर बनने लगा। मेरी ढलती हुई युवावस्था और तेरे पिता की मजबूती जैसे हम से निकल कर तेरे बदन में समाने लगी। दुनिया भी खूब है। शरीर