एक और कुन्ती - (विष्णु प्रभाकर की कहानी)

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प्यारे दोस्त! क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि यह पत्र लिखने का निर्णय करने में मुझे पूरा एक वर्ष लगा। और अगर यह घटना न घटी होती तो शायद कभी न लिख पाती। मैं नहीं जानती कि आपको क्या कहकर संबोधित करूँ। आज निश्चय कर बैठी थी कि पत्र लिखकर उठूँगी। इसलिए सहसा जो संबोधन सूझा, वही लिख रही हूँ। उसके पीछे जानबूझकर दिया हुआ कोई अर्थ नहीं है। चिट्ठी लिखने का एक और भी कारण हो सकता है। उसमें मन उतर आता है। मैं मन खोलना चाहती थी किसी के सामने। आपको याद होगा कि लगभग दो वर्ष