अपंग - 9

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9--- दिनों की अपनी रफ़्तार होती है, वे हमारी मुठ्ठियों में कैद होकर नहीं चुपचाप बैठे रहते | वे बीतते हैं अपनी मनमर्ज़ी से, रुकते हैं तो अपनी मनमर्ज़ी से और कभी ठिठककर हमें खड़े महसूस होते हैं तो भी अपनी मनमर्जी से | दरअसल, वे कभी खड़े नहीं होते, उनका तो अपना मूड होता है जिसके अनुसार वे चलते हैं | वे हमें बताकर नहीं चलते, जैसे भानु को बताकर नहीं चलते थे | भानु को समझने की ज़रूरत थी कि आख़िर समय उससे क्या चाहता है ? दिन उससे कैसा रहने की उम्मीद करते हैं ? लेकिन नहीं