बाज़ार में स्त्री

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आज सिर्फ स्त्री ही नहीं पूरी मनुष्य जाति बाजार के केंद्र में है। बाजार में पहले पुरूषों का वर्चस्व था फिर स्त्रियों ने उसमें दखल दिया और पुरूषों को आत्मालोचन,आत्मनिरीक्षण का मौका दिया |एक समय था जब मैदानी इलाकों में स्त्रियों का बाजार जाना भी वर्जित था |बाजार में दुकान लगाना या उस पर बैठना तो दूर की बात थी |इससे पुरूष की तौहीन होती थी |हाँ ,कहीं-कहीं निम्न वर्ग की गरीब स्त्रियाँ हाट-बाज़ारों में साग-भाजी ,मछली आदि बेचती हुई दिखती थीं |चूड़िहारिनें,मनिहारिनें व आदिवासी जाति की स्त्रियाँ स्त्रियों के शृंगार से संबन्धित वस्तुएँ घर-घर घूम कर बेचती थीं |