मैं क्यो किसी पर भी उतना ही ध्यान देने लगता हूँ; जितना शायद ही कोई खुद पर भी देगा, किसी दूसरें को तो बात बहुत दूर की हैं, " जैसे कि मेरे लियें उसमें और मुझमें कोई अंतर ही नहीं हैं"?चेतना, जागरूकता या होश ही अपनी आत्मा हैं; इसी का उससे हुआ अनुभव आत्म अनुभव और इसी शून्य या अनंत आत्मा का ज्ञान यानी अनुभव या अनुभूति ही आत्म ज्ञान हैं हाँ! यही आत्म साक्षात्कार हैं। एक होश ही हैं जो कि मन यानी भाव, स्मृति, विचार, कल्पना तथा इन सभी को करने की योग्यता, कर्म इन्द्रियाँ, ज्ञान इन्द्रियाँ तथा