जीवन वीणा - 8

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पिंजड़ा तोड़ न पाया पंछी, आजादी का स्वप्न अधूरा ।उड़ना चाहा मुक्त गगन में, पर मंसूबा हुआ न पूरा ।।नहीं पता कितने जन्मों से,इस पिंजड़े में बंद जवानी ।वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।उड़ने की उन्मुक्त गगन में, यद्यपि रही कल्पना मेरी ।विषय वासना,लालच,डर की,लगी रही अनचाही ढेरी।।रहा सिसकता बस पिंजड़े में,बाहर निकल न पाया प्रानी।वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।आया एक खयाल एक दिन,युक्ति करूं बाहर जाने की।कीन्ही परमेश्वर से विनती,अपना पिंजड़ा खुलवाने की।।परमेश्वर ने मेरी सुनली,बालक ने करदी नादानी ।वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने