"स्वतंत्रनिर्भरता का महत्व"आत्मा को परमात्मा से मिलन कर, परम् यानी सर्वश्रेष्ठ आत्मा बनने के लियें स्वयं के ही तंत्र पर निर्भर होकर आत्म निर्भर स्वतंत्र बनना अनिवार्य हैं।वह आत्मा किसी भी आत्माओं के तंत्र का या जन तंत्र का अंग क्यों नहीं हो; उस तंत्र में भले ही वर्ण व्यवस्था का संतुलन समानता के आधार पर हों परंतु उसे संतुलन पूर्णता के आधार पर ही बनना चाहिये।ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह चार अंग होंगे आत्मा या जन जिस जन समूह का अंग हैं; उस जन समूह के परंतु "आत्मा या जन को मन, मस्तिष्क, तन और आत्मा सें; ब्राह्मण,