अधिकार" और "कर्तव्य" ऐसे शब्द है, जो एक दूसरे के पूरक है, एक के बिना दूसरे का चिंतन करना व्यर्थ है। फिर भी विडम्बना ही कहिये एक सर्व पसन्द है, दूसरा ज्यादातर सिर्फ चिंतन का विषय ही है। जी हाँ, अधिकार की खुश किस्मती है और कर्तव्य की लाचारी और मजबूरी है।अधिकार प्राप्त करना सबको प्रिय लगता है, पर यह बात कर्तव्य निभाने के लिए नहीं की जा सकती, ऐसा क्यों है ? उत्तर देना आसान नहीं, पर तथ्य कहते है, देने वाला ज्यादा प्रिय लगता है और लेने वाला कम। ऊपरी सतह पर कथन सही भी लगता है, पर