घर कब आओगे

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सांसे टूट रही थी, धड़कन भी धीरे धीरे रुकने लगी थी। पूरे शरीर लहूलुहान था। दुश्मन की गोलियों ने उसके शरीर को छलनी कर दिया था। वो ज़मीन में गिरा पड़ा था।उसके अगल बगल उसके साथियों की लाशें लहू से लथपथ पड़ी थी। उसने अपनी जाती हुई चेतना को रोकने की पूरी कोशिश करते हुए कांपते हुए हांथो से अपने पैंट के ज़ेब से उसका ख़त निकाल कर अपने होंठों से लगा लिया। कल ही तो मिला था उसका ये ख़त जो शायद अब उसके लिए आखिरी ख़त बनने वाला था। उसकी आंखें अब मुंदने लगी थी। चेतना भी ज़वाब