बैंगन - 20

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गहराती रात के साथ सन्नाटा बढ़ता गया पर न तांगा आया और न तन्मय। मेरा मन अब भीतर ही भीतर डरने सा लगा। आधी रात को मंदिर के वीरान से इलाक़े में एक अजनबी को घूमते देख कर किसी को अकारण कोई शंका न हो, यही सोच कर मैंने सीढ़ी दीवार से लगाई और मैं छत पर आ गया। बिस्तर पर लेट कर भी मैं घटना के बारे में ही सोचता रहा। रात के लगभग दो बजे होंगे तभी अचानक मैंने दीवार के पास कोई आहट सी सुनी और उसके साथ ही लकड़ी की सीढ़ी के गिरने की आवाज़ आई।