प्रतिशोध--(अन्तिम भाग)

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जब मणिशंकर को ये ज्ञात हुआ कि सत्यकाम राजनर्तकी योगमाया से प्रेम करता है तो उसने सोचा,अब तो तनिक भी बिलम्ब नहीं करना चाहिए, ये सूचना शीघ्र ही आचार्य शिरोमणि तक पहुँचनी चाहिए और कितना अच्छा हो कि ये सूचना सर्वप्रथम मेरे द्वारा ही आचार्य को मिले।। और मणिशंकर उसी क्षण बिना बिलम्ब किए ही गुरुकुल की ओर चल पड़ा,रात्रि का समय हो चला था कुछ अँधेरा भी गहराने लगा था,किन्तु मणिशंकर को किसी का भय ना था,उसे तो बस श्रेष्ठ शिष्य की उपाधि चाहिए ,जिसके लिए वो कुछ भी कर सकता था।। उसके पाँव की गति इतनी