उस रात का खसारा

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उस रात का खसारा इंसान की पेचीदगी भी क्या गुल खिलाती हैं..ना खुद हद्द में रहती हैं ना औरों को रहना सिखाती हैं...ज़िन्दगी में कभी एक भी लंबे वक़्त का ठिकाना ना हुआ... जवानी के दौर में क्या बचपन से ही कंधो पे घर की ज़िम्मेदारीयों का एहसास हो चला था... दौर बदलते ज़माने की होड़ का था.. वालीदानों के उस दौर में 100/- रुपए की पगार में घर के 6-7 लोग पल जाया करते थे.. लेकिन कमबख्त आज के इस ज़माने में अपनी ही पगार में खुद भी ना पल पा रहें हैं... जितना कमाओ उतना कम... महीने के आखिर