शगुन

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शगुन कुलदीप ने अपना हाथ, शगुन के हाथ पर दवाब बनाते हुये रखा है, कुछ इस तरह मानो कह रहा हो- "क्या सोच रही हो..? मत सोचो, मैं हूँ न, तुम्हारे साथ।" उसने सिगरेट का एक कश लेते हुये शगुन की आँखों में झाँका है। जिसे कहने के लिये शाब्दिक भाषा की जरुरत नही है और समझने के लिये कानो का सुनना। इस लम्बे, मौन वार्तालाप के समूचे केन्द्र की धुरी, हर बार की तरहा शगुन का परिवार ही रहा है और न चाहते हुये भी वो बोझ कुलदीप की पीठ पर लदता चला गया। भले ही उसने वह अपनी