जहाँ ईश्वर नहीं था - 1

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गोपाल माथुर 1 आँख कुछ देर से खुली. बाहर सुबह जैसा कुछ भी नहीं लगा, हालांकि सूरज निकल चुका था, पर वह घने बादलों के पीछे कैद था. बारिश बादलों में लौट गईं थीं और हवाएँ भी थक कर पेड़ों की डालों पर सुस्ता रही थीं. घर के सामने वाली सड़क पर जगह जगह पानी के चहबच्चे जमा थे. जब कोई कार या स्कूटर गुजरता, रुका हुआ पानी हवा में उड़़ने लगता था. बारिश में भीगी कुछ चिड़ियाएँ बिजली के तारों पर अपने पंख सुखा रही थीं. सब कुछ ठीक वैसा ही था, जैसा बारिश की किसी सुबह हो सकता