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आशीष दलाल (१) ढ़लती दोपहर को अपने कमरे की खिड़की के पास बैठे हुए श्रेया बाहर बरसती बारिश की बूंदो को अपलक निहार रही थी । पास रखे उसके मोबाइल पर जगजीत और चित्रा सिंह की आवाजें गूंज रही थी । ‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो । भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी । मगर मुझको लौटा दो । बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी ।’  असंख्य बूंदों का धरती पर गिरते ही अपना स्वरूप मिटा कर पानी की पतली सी धारा में एकाकार होते हुए देखना श्रेया को बचपन