बारह पन्ने - अतीत की शृंखला से पार्ट 6

  • 4.6k
  • 1.5k

उस समय की ही नही आज भी मेरे शहर के अपनत्व की मिठास लिए खाने की बात ही कुछ और है ,कोई मुक़ाबला ही नही बचपन से खायी उन चीज़ों का । गर्मियों में क़ुल्फ़ी की बात किए बिना तो आगे जा ही नही सकती ।कढ़े हुए दूध की इलाइची डली क़ुल्फ़ी लेकर घंटी बजाता क़ुल्फ़ी वाला आता और सींक पर लगी मोटी सी क़ुल्फ़ी गाढ़े दूध में डुबोकर पकड़ा देता ।अधैर्य से उस ठंडी क़ुल्फ़ी को जल्दी जल्दी खाना भी अपने आप में एक कला थी ।ज़रा सी देर की नही कि क़ुल्फ़ी फ़टाक से पिघलकर नीचे गिर