बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 30

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भाग - ३० जब रात एक बजे हम निकले तो पूरे मोहल्ले में सन्नाटा था। निकलने से पहले मैं ज़ाहिदा-रियाज़ को देखना नहीं भूली। अब उस दरवाजे के पास वह बड़ा बक्सा नहीं था, जिस पर बैठकर मैं उनके कमरे में, उनको झांका-देखा करती थी। आखिरी बार खड़े-खड़े ही देख रही थी। हमेशा की तरह लाइट जल रही थी। बेटा सुरक्षित दिवार की तरफ सो रहा था। वह दोनों भी बहुत ज्यादा रोशनी की ही तरह बहुत ज्यादा बेपरवाह थे। ज़ाहिदा लेटी थी। रियाज़ अधलेटा था उसी के बगल में। चेहरे से चेहरा मिलाकर दोनों कुछ बातें कर रहे थे।