रामचरितमानस-रत्नावली का मानस

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4 रत्नावली का मानस रामगोपाल भावुक अस्थि चर्म मय देह मम, तामे ऐसी प्रीति। जो होती श्रीराम में, होत न तो भवभीति।। कर गह लाये नाथ तुम, बाजन वहु बजवाय। पदहु न परसाए तजत, रत्नावलि हि जगाय।। कटि की छीनी कनक सी, रहत सखिन संग सोय। और कटे को डर नहिं, अन्त कटे डर हाय ।। गोस्वामी तुलसी दास’की धर्मपत्नी रत्नावली के दोहों से हमने उनके जीवन में झँकने का प्रयास किया हैे। इन्हें पढ़कर रत्नावली के बारे में कथ्य प्रस्फुटित होने लगता हैं। 00000 रत्नावली के पिताजी का नाम दीनबन्धु पाठक था। उनके कोई लड़का न था।