बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 14

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भाग - १४ मैंने तुरंत बात का रुख बदलते हुए देर होने की बात छेड़ दी, उन्हें बात समझाने के लिए मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ी। उससे कहीं ज्यादा मशक्कत तो वहां पर जो भी काम-धंधा था उसे समझाने में करनी पड़ी। लेकिन इसके बाद उन्होंने फिर बाकी जितने दिन वहां पर जाना हुआ, जाने दिया। कभी मना नहीं किया। जबकि पूरी तरह कार्यक्रम शुरू हो जाने के बाद रोज घर पहुंचते-पहुंचते रात ग्यारह बज जाते थे, क्योंकि देर शाम को कार्यक्रम खत्म होता था। फिर सब कुछ बंद करवाने, अगले दिन के लिए भी कुछ तैयारियां करवाने में मुन्ना