कोख से कब्र तक: स्त्री-विमर्श के विभिन्न रूप

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रवीन्द्र कात्यायन "मुझे जन्म दो मांताकि मैं लपटों की रोशनाई से आग की कलम पकड़कर रचूं धूप का वह गीत जो संदूकों में बंद औरत के बुसाए सीलन भरे अतीत को दफ़न कर उगे सूरज की तरह पूरब की दिशाओं में।" (स्व. हेमंत की कविता)  पूरब की दिशाओं में सूरज की तरह उगने की कामना, लपटों की रोशनाई से आग की कलम पकड़कर धूप का गीत रचने का संकल्प आज की नारी के जीवन की वास्तविकता और आवश्यकता है। सदियों से दोयम दर्जे की ज़िन्दगी जीने को अभिशप्त स्त्री की नियति को अगर बदलना है तो वो एक स्त्री ही