मैं भारत बोल रहा हूं (काव्य संकलन) वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’ 37. कवच कुण्डल विना व्याकरण ना पढ़ा, व्याख्या करते दिखा, शब्द-संसार को जिसने जाना नहीं। स्वर से व्यजंन बड़ा, या व्यजंन से स्वर, फिर भी हठखेलियाँ, बाज माना नहीं।। नहीं मौलिक बना, अनुकरण ही किया, ऐसे चिंतन-मनन का भिखारी रहा, आचरण में नहीं, भाव-भाषा कहीं, नीति-संघर्ष से दूर, हर क्षण रहा।। जिंदगी के समर, अन्याय पंथी बना, बात की घात में, उन संग जीवन जिया। अनुशरण ही किया, उद्वरण न बना, मृत्यु के द्वार नहीं कोई धरणा दिया।। कोई साधक बना, न कहीं उपकरण, विना कवच-कुण्डल