कहानीगुङिया भीतर गुङियागुङ़िया भीतर गुङ़ियाचांदनी.... चांदनी.... चांदनी.... चिल्लाते हुए मैं लगातार उसके पीछे भाग रहा था पर वो मेरी पकड़ में नहीं आ पाई। हांफते-हांफते किसी ठोकर से गिरा तो रोने लगा पर आवाज गले में अटक गई, शरीर सुन्न हो गया, हाथ- पांव में बेहिसाब वजन का अहसास हो रहा था कि तभी आंख खुली....ये ...ये क्या, क्या मैं सपना देख रहा था..... आवाज अभी भी हलक में अटकी हुई थी, पलंग पर चांदनी नहीं थी, आंखों की कोर भी गली थी, शरीर भी संज्ञा शून्य.... सपने और हकीकत में भेद ही नहीं कर पा रहा था मैं। बङ़ी