सुरतिया - 1

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’नमस्ते बाउजी. कैसे हैं?’बाहर बरामदे में बैठे बाउजी यानी रामस्वरूप शर्मा जी, सुधीर के दोस्त आलोक के इस सम्बोधन और उसके पैर छूने के उपक्रम से गदगद हो गये. ’ठीक ही हूं बेटा. अब बुढ़ापे में और कैसा होना है? भगवान जितने दिन अभी और कटवाये यहां काटेंगे. अपनी इच्छा से कब कौन गया है? शरीर है तो हारी-बीमारी है, लाचारी है. क्या कीजियेगा? सब झेलना है....!’ किसी को अपनी ओर मुखातिब देख बाउजी ने सारी बातें एक साथ कह लेनी चाहीं. लेकिन तब तक सुधीर अन्दर से आ गया था. बोलते हुए बाउजी की ओर उसने जिन नज़रों से देखा,