मेरे घर आना ज़िंदगी - 17

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मेरे घर आना ज़िंदगी आत्मकथा संतोष श्रीवास्तव (17) सूने घर का पाहुना ज्यूँ आया त्यूँ जाव औरंगाबाद पहुंचकर प्रमिला से लिपट खूब रोई । सब कुछ खत्म । हेमंत...... मुंबई से जुड़ा हर लम्हा जैसे मुट्ठी से रेत की मानिंद फिसल गया। अब खाली मुट्ठी है। भीतर तक खाली मैं। खाली होना कितना जानलेवा है। वक्त लगा सम्हलने में। खुद को उस माहौल में खपाने में । बीच-बीच में रचनाओं का प्रकाशन राहत दे जाता। धनबाद झारखंड से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका हमारा भारत में अभिषेक कश्यप ने मेरा यात्रा संस्मरण छापा “नीले पानियों की शायराना हरारत। “ मैंने अभिषेक को