ऐसा तो आज तक नहीं हुआ कभी कि इतने समय तक हमारे बीच, थोड़ा बहुत ही सही, संवाद न हुआ हो। इसी उधेड़बुन में न जाने कब हमारे कदम उस तरफ़ अनजाने ही मुड़ गये, जहाँ मैं और जयंती अक्सर ,समय मिलते ही, साथ मिल बैठने, आ जाते थे। ये हमारे लिए सबसे प्रिय समय होता था। हम भविष्य की रूपरेखाओं पर बातचीत करते। आने वाले सुखद दिनों के स्वप्नों मे खो जाते थे। इससे बिल्कुल बेखबर कि नियति ने कुछ और ही फ़ैसला हमारे लिए कर लिया है। मुंगेर का गंगा घाट। सूर्य अपनी रश्मियों को समेट कर अस्त