किस्सा बाँके बाबू के जाने का

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किस्सा बाँके बाबू के जाने का प्रेम गुप्ता ‘मानी’ मई की बेहद गर्म पिघलती हुई दोपहरी थी। कमरा किसी हलवाई की भट्टी की तरह तप रहा था। कमरे के बाहर आँगन और आँगन से बाहर गेट के उस पार का वातावरण खुला होने के बावजूद कुछ कम गर्म नहीं था। काले कोलतार से सड़क ताज़ी नहाई हुई लग रही थी, पर फिर भी उसका बदन पसीने से डूबा हुआ था। उसके चिकने काले बदन से उठती तपन की कसैली गन्ध हवा में पूरी तरह घुली हुई थी...उसे आसानी से महसूस किया जा सकता था। सड़क की दुर्दशा देख कर तीखी,