लघुकथा-- आगोश --राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव, कमरे का दरवाजा खोलते ही मधु अन्दर चली गई, तत्काल बाद ही मैं उसके पीछे-पीछे आ गया। वह पंखा, कूलर, ट्यूबलाईट आदि ऑन करने लगी। मैं उसके शरीर सौष्ठव को पीछे से घूरता रहा, वह जिधर-जिधर चहल-कदमी करती मेरी निगाहें उधर-उधर ही अनायास घूमती रही। पीछे भी एकाग्र होकर देखने पर कितनी मादकता पूर्ण मनोस्थिति मेहसूस होती है। एक मस्ती सी मिजाज में घुलने लगती है। जो उत्तरोत्तर उन्नत होती जाती है। चरम बिन्दु की ओर.....। सन्नाटे में, खासकर रात्रिकालीन स्निग्धता में सुरूर घुलने लगता है। ऑंखों में