मेरे घर आना ज़िंदगी - 5

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मेरे घर आना ज़िंदगी आत्मकथा संतोष श्रीवास्तव (5) गहरे पानी पैठ उम्र की बही पर सोलहवें साल ने अंगूठा लगाया । वह उम्र थी बसन्त को जीने की, तारों को मुट्ठी में कैद कर लेने की और बांह पसार कर आकाश को नापने की। इधर मेरी हमउम्र लड़कियां इश्क के चर्चे करतीं, सिल्क, शिफान, किमखाब, गरारे, शरारे में डूबी रहतीं। मेहंदी रचातीं। फिल्मी गाने गुनगुनातीं। दुल्हन बनने के ख्वाब देखतीं। तकिए के गिलाफ पर बेल बूटे काढ़तीं। मैं कभी अपने को इन सब में नहीं पाती । मेरे अंदर एक ख़ौलता दरिया था जिसका उबाल मुझे चैन नहीं लेने देता