मेरे घर आना ज़िंदगी - 4

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मेरे घर आना ज़िंदगी आत्मकथा संतोष श्रीवास्तव (4) दुखिया दास कबीर है 30 अप्रैल 1999 बनारस का मणिकर्णिका घाट.... मैं छोटी सी तांबे की लुटिया में एहतियात से सहेजे अम्मा के अस्थिपुष्प गंगा की लहरों में विसर्जित कर रही थी। बचपन से ही वे मुझे अपना बेटा कहती थीं। उनकी इच्छा थी कि मैं ही उन्हें मुखाग्नि दूँ और मैं ही उनकी अस्थियां गंगा में प्रवाहित करूँ। कमर कमर तक पानी में खड़ी मेरे सब्र का बांध टूट गया था- "अम्मा तुम न कहती थीं कि मैं तुम्हारी बेटी नहीं बेटा हूँ। आज मैंने अपना अंतिम कर्तव्य पूरा किया । लेकिन