देखना फिर मिलेंगे - 4 - मिले हो तुम नसीबों से

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बस कंडक्टर की आवाज पर तन्द्रा टूटी तो सारे वापस अपनी अपनी सीट पकड़ने को आतुर दिखे। रात अभी बाकी थी। जाने हर रात उकता देने वाली रात आज छुट्टन को भा रही थी। लग रहा था जैसे सीने पर रखा कोई पत्थर हल्का हो चला है। पर उसकी किस्मत को उससे दुश्मनी ही थी जो बस जल्दी रिपेयर हो कर आ गई। छुट्टन अपनी सीट पर बैठा तो सारी झुंझलाहट जा चुकी थी। अब ना तो उसे पैर फैलाने को जगह कम लग रही थी और ना सफर उबाऊं। खिड़की से आती हल्की हवा ने पलकों को भारी कर दिया