मेरे घर आना ज़िंदगी - 1

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मेरे घर आना ज़िंदगी आत्मकथा संतोष श्रीवास्तव (1) ज़िंदगी यूँ हुई बसर तनहा काफिला साथ और सफर तनहा जो घर फूँके आपनो कबीर मेरे जीवन में रचे बसे थे। खाली वक्त कभी रहा नहीं। रहा भी तो कबीर के दोहे गुनगुनाती रहती । कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ घर फूंकने में मुझे गुरेज नहीं । मुंबई में 22 बार घर बदला । दो बार शहर बदले। खूंटे से छूटी गाय की तरह दोनों बार मुम्बई वापस। मोह वश नहीं, मोह तो मेरा हर चीज से हेमंत के साथ ही खत्म हो