एक बूँद इश्क - 16

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एक बूँद इश्क (16) चार दिन गुजर गये। रोते-मनाते, सुनते-समझते रीमा बच्ची सी हो गयी है। वह रोती, हँसती रुठती और फिर उदास हो जाती। कभी कोसानी को मचलती, कभी नींद में बैजू को पुकारती तो कभी काल्पनिक बाँसुरी सुन इठलाती। यह सब असहनीय तो है ही साथ ही सबसे छुपाना भी है। माँ की उम्र नही एक ऐसी घटना को समझना जो वास्तविक तौर पर उनके आस-पास कभी न घटी हो। शुचिता की अन्दरुनी ईर्ष्या भी परेश से छुपी नही है। ऐसे में खामोशी ओढ़ लेना बेहतर है। कुशाग्र से लम्बी और सौहार्दपूर्ण मुलाकात के बाद यही निष्कर्ष निकला