बंसवा फुलाइल मोरे अँगना

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बंसवा फुलाइल मोरे अँगना उर्मिला शुक्ल बाथरूम में शीशे के सामने खड़ी वह देख रही थी, अपने आपको । लग रहा था, जैसे एक ही रात में सब कुछ बदल गया है । उसे लग ही नहीं रहा था कि वह वही सीमा है, जो अपने आप पर रीझ जाया करती थी । अपनी एक एक गढ़न पर खुद ही सम्मोहित हुआ करती। मगर आज .... ? उसे अपनी ही देह कितनी अजनबी लग रही थी, आज सम्मोहन की जगह एक लिजलिजा सा अहसास उभर आया था । उसने एक बार, दो बार, कई-कई बार साबुन लगाया, साबुन की सारी