फ़लक तक चल... साथ मेरे ! 4. सुलक्षणा मामी के शब्द दिन रात उसके कानों में गूंजते। सिर्फ बचपन ही नहीं सच में इन लोगों ने उसका समूचा वजूद ही हर लिया था। वह दिन रात यंत्रवत काम करती ,सास और जेठानियों के ताने उलाहने सुनती और रात भर अपने इस स्वामी की इच्छाओं के आगे बिना किसी प्रतिरोध सर्वस्व हारती जाती। वनिता द्वारा हार स्वीकार लेने पर भी वह क्यों जीत के लिए इतनी जद्दोजहद करता है वनिता समझने में खुद को असमर्थ पाती। यूं भी कुछ समझने महसूस करने को न उसके पास दिल बचा था न दिमाग।