सीता: एक नारी - 5

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सीता: एक नारी ॥पंचम सर्ग॥ संतप्त मन, हिय दाह पूरित, नीर लोचन में लिएमुझको विपिन में छोड़कर लक्ष्मण बिलखते चल दिए निर्लिप्त, संज्ञा शून्य, आगे लड़खड़ाते वे बढ़ेउठते नहीं थे पाँव, रथ पर अति कठिनता से चढ़े रक्षार्थ खींचा था, गमन करते हुए, रेखा कभी पर छोड़ असुरक्षित मुझे वे विपिन में, लौटे अभी लेकिन नहीं दुर्भावना मन में उठी उनके लिएथे कर्मचारी राज्य के दायित्व निज पूरा किए निर्दोष थी मैं, सत्य यह थे राम, लक्ष्मण जानतेपर कर्मचारी तो सदा विधि राज्य का ही मानते भाषा नियम की, राज्यकर्मी सर्वदा ही बोलतेहर सत्य को केवल विधानों पर सदा हैं तोलते होता नहीं