कुबेर - 47

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कुबेर डॉ. हंसा दीप 47 इन सबको देखकर, इनके साथ रहकर कई बार पास्कल साहब सोचते हैं कि वे अपनी किस्मत का रोना ही रोते रहे, एक रोते रहने वाले बच्चे की तरह। कभी यह नहीं सोचा कि इस रोती सोच के आगे भी बहुत कुछ है। कुबेर सर को देखकर लगता है कि किस्मत के भरोसे जीवन को छोड़ा नहीं जा सकता। किस्मत तो बनानी पड़ती है, मौकों को हथियाना पड़ता है, मौकों को खींच कर लाना पड़ता है। लोहे के चने चबाने की हिम्मत हो तो ही देश-विदेश में व्यापार फैला सकते हो। वे बुज़दिल थे। ‘रिस्क फेक्टर’