सीता: एक नारी ॥तृतीय सर्ग॥ स्वीकार करती बंध जब, सम्मान नारी का तभीहोती प्रशंसित मात्र तब, संतुष्ट जब परिजन सभी भ्राता, पिता, पति, परिजनों की दासता में रत रहेहोती विभूषित नारि जो मन की नहीं अपने कहे उसके लिए इच्छा-अनिच्छा व्यक्त करना पाप है जीवन जगत में नारि का कोई बड़ा अभिशाप है बस कष्ट ही तो नीतियों के नाम पर उसने सहामरजाद के निर्वाह का दायित्व उस पर ही रहा मैंने बचा ली लाज सहकर ताप, जो रघुवंश की हर्षित सभी, सुधि थी किसे मेरे हृदय के दंश की अभिभूत थे श्रीराम मेरे हो रहे यशगान से संतप्त था जो मुख, हुआ दर्पित पुनः अभिमान से जो बुझ