सीता: एक नारी ॥द्वितीय सर्ग॥ मेरे लिए जो था प्रतीक्षित वह समय भी आ गयारण बीच रावण बन्धु-बांधव के सहित मारा गया कम्पित दिशाएँ हो उठीं जयघोष से अवधेश के विच्छिन्न हो भू पर पड़े थे शीश दस लंकेश के था मुक्ति का नव सूर्य निकला पूर्व के आकाश मेंशीतल समीरण बह चला, नव-सुरभि भरता श्वास में हरि से मिलन की कल्पना से, हृदय आह्लादित हुआमन दग्ध करता अनवरत जो ताप, वह बाधित हुआ वे धमनियाँ जो सुप्त थीं, उनमें रुधिर बहने लगामन पर खड़ा था वेदना का मेरु, वह ढ़हने लगा अपने अनागत का सुनहला रूप मैं गढ़ने लगी नूतन उमंगों से भरी,