स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (17)

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स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (17)पर्वतीय प्रदेश में ठहरी साँसों का हसीन सफ़र (ख) शाम ढलान पर थी और मैं भी अंतिम पहाड़ की ढलान पर। दूर, पहाड़ के नीचे समतल मैदान में बसा गाँव माचिस की डिब्बियों का ज़खीरा-सा दीख रहा था मुझे। मैं उत्साह से आगे बढ़ा। ढलान पर उतरते हुए गति अनचाहे बढ़ गयी थी। जल्दी ही मैं बागोड़गाँव की सीमा-रेखा पर पहुँच गया। गाँव में प्रवेश करते ही सुन्दर पहाड़ी बालाओं का एक दल हाथो में लोटा-बाल्टी लिए जाता दिखा। मैं लपककर उनके सामने जा पहुँचा और जिस घर में मुझे जाना था, उसका पता-ठिकाना